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Annual Report 2016-17

प्रतिवेदन वर्ष 2016-17

अकादमी द्वारा वर्ष 2016-17 में संचालित एवं सम्पन्न की गई गतिविधियाँ/प्रवर्तियाँ तथा उपलब्धियाँ निम्नानुसार उल्लेखनीय है –

  • ग्रन्थालय एवं प्रलेखन केन्द्र का संचालन

ग्रन्थालय – अकादमी द्वारा संचालित ग्रन्थालय के अन्तर्गतगत वर्ष 2017 तक 3725 पुस्तकें संग्रहित हो चुकी है जो कि एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है ।

पत्र-पत्रिकाऐं – अकादमी वाचनालय/रिडिंग रूम के अन्तर्गत वर्ष 2016-17 में  नियमित रूप से 25 पत्र-पत्रिकाऐं उपलब्ध करवाई गई । उपलब्ध ग्रन्थो, पत्र-पत्रिकाओं, सन्दर्भ सामग्री एवं सुविधाओं का देश-प्रदेश के विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध एवं स्थानीय शोधार्थियों/लेखकों एवं सुधी पाठकों ने लाभ प्राप्त किया है ।

प्रलेखन – पत्र-पत्रिकाओं, जर्नल्स तथा शासकीय योजनाओं/सूचना स्रोतों से अनुसूचित जाति, जनजाति एवं समाज के कमजोर वर्गों के विकास/उन्नयन संबंधी आलेख, समाचार, अध्ययन निष्कर्ष, सर्वेक्षण रपट आदि वर्गीकृत जानकारी का प्रलेखन/दस्तावेजीकरण किया गया है ।

  • शोध पत्रिका (जर्नल) का प्रकाशन

वर्ष 2016-17 में अकादमी की त्रैमासिक शोध पत्रिका ‘‘पूर्वदेवा’’ के अंक 85-86 एवं 87-88 का नियमित सम्पादन/प्रकाशन किया गया है । जिसके अंतर्गत 25 शोध आलेख प्रकाशित किये गये है । ‘‘पूर्वदेवा’’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक डॉ.हरिमोहन धवन एवं प्रकाशक श्री पी. सी. बैरवा है । यह उल्लेखनीय है कि पूर्वदेवा पत्रिका का सम्पादन एवं प्रकाशन पूर्णतः अवैतनिक एवं अव्यावसायिक है ।

  • सामाजिक विज्ञान शोध केन्द्र का संचालन

विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन से अकादमी को सामाजिक विज्ञान शोध केन्द्र के रूप में समाजशास्त्र एवं इतिहास विषय में मान्यता/सम्बद्धता प्राप्त है । शोध केन्द में आवश्यक शोध सुविधाऐं प्रदान की जाकर शोधार्थीयों को संकाय सदस्यों द्वारा सतत् मार्गदर्शन प्रदान किया गया  है । वर्ष में सामाजिक विज्ञान संकाय के अन्तर्गत समाजशास्त्र विषय में पी.एच.डी. उपाधि/शोध कार्य हेतु कई विषयों पर शोधार्थी के रूप में पंजीयन कराया गया है ।

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संकाय- शोध केन्द्र संकाय सदस्य (1) डॉ. जे.एन. दुबे, शोध निदेशक इतिहास, (2) डॉ. एन.एल. शर्मा, शोध निदेशक समाजशास्त्र (3) डॉ. एच. एम. बरूआ, शोध निदेशक समाजशास्त्र मानद् रूप से कार्यरत् है । संकाय अन्तर्गत इस वर्ष 1- डॉ. पी.सी. करोडे, शोध निदेशक-समाजशास्त्र, 2- डॉ.  राजेश ललावत, शोध सहायक-राजनीतिशास्त्र और 3- डॉ. दत्तात्रय पालीवाल, शोध सहायक-समाजशास्त्र एवं डॉ.आर.के. अहिरवार, शोध निदेशक -विजिटिंग प्रोफेसर, इतिहास सम्मिलित किये गये । जिनके नेतृत्व में शोध केन्द्र की गतिविधियाँ संचालित की जा रही है ।

  • राष्ट्रीय संगोष्ठी/जयन्ती-काव्यगोष्ठी/परिचर्चा/विशिष्ट व्याख्यान आयोजन

(1)  डॉ. अम्बेडकर जयन्ती पर विचार गोष्ठी का आयोजन

14 अप्रेल, 2016 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर जयन्ती दिवस पर स्थानीय टावर चैक पर स्थित डाॅ. अम्बेडकर प्रतीमा पर पुष्पांजली अर्पित की गई तत्पश्चात अकादमी सभाकक्ष में आयोजित विचार गोष्ठी को सम्बोधित करते हुए डॉ. रामकुमार अहिरवार, विभागाध्यक्ष-प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन ने कहा कि भारत एक ऐसा देश है जिसने संसार के सभी प्रकार की विचार-धाराओं के सागर को अपने दर्शन में बांध रखा  है। जो भी विचारधराएं हमें विदेशी दार्शनिकों से मिलती है लगभग सभी की सभी भारत दर्शन में किसी न किसी रूप में विद्यमान है । आधुनिक युग में बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर ऐसे महान दार्शनिक हुए है जिनमे गहन अध्ययन ने उनकी दार्शनिक दृष्टि इतनी साफ और मानवीय बना दी है कि उनकी हर सांस में मानव पीड़ा के प्रति सहानुभूति का सागर छलकता दिखाई देता है । लोग कहते हैं कि डॉ. अम्बेडकर दलित वर्गों के ही नेता थे, परन्तु इसमें बिल्कुल सच्चाई नहीं है । यह महान व्यक्ति तो वर्तमान युगीन व्यक्ति थे जिनमे मन ओर तन में सभी लोगों को अधिकार दिलाने की तीव्र इच्छा थी । भारत के संविधान का निर्माण करके उन्होंने न के केवल भारतीय वर्गों के अधिकारों की कानूनी तौर पर रक्षा की, अपितु भारतीय समाज के आधे भाग अर्थात स्त्री वर्ग को भी मनुष्य वर्ग के बराबर खड़ा कर दिया है ।

इस अवसर पर अकादमी अध्यक्ष डॉ. हरिमोहन धवन ने कहा कि बाबा साहब ने कहा था कि बुजदिल एवं कमजोर का ही सदैव शोषण होता है, चाहे वह व्यक्ति हो अथवा जाति। स्वाभिमानी एवं शक्तिशाली का कोई शोषण नहीं कर सकता । इसलिये, आज इस बात की आवश्यकता है कि समाज में ऐसे विचारों का प्रचार किया जाए जिससे समूचे दलित वर्ग के लोगों का आत्मविश्वास बढ़े । अकादमी सचिव श्री पी. सी. बैरवा ने कहा कि डॉ. अम्बेडकर ने अपना सारा जीवन दलित-शोषित-पीड़ितों के उत्थान में बितया वे समाज में व्याप्त ऊॅंच-नींच, भेद-भाव को समूल नष्ट कर सामजिक समरसता को स्थापित करना चाहते थे ।

(2) संत कबीर जयन्ती: काव्यगोष्ठी एवं परिचर्चा का आयोजन

20 जून, 2016 को संत कबीर जयन्ती दिवस पर डॉ. पी.सी. करोड़े पूर्व आचार्य- समाजशास्त्र, उज्जैन ने कहाकि महात्मा कबीर ने ईश्वर-भक्ति के प्रपंचो को भी चुनौती देने का साहस दिखया था । कदाचित् उससे पहले निर्भीक और तटस्थ भाव से किसी और सन्त  ने यह पराक्रम नहीं किया था । वस्तुतः कबीर तो मानव-प्रेेमी और मानवतावादी महापुरूष थे। भगवान् में अटूट विश्वास के कारण नर में नारायण की प्रतीति ने उन्हें मानवतावाद की और उन्मुख किया । इसलिये कभी किसी मानव से घृणा या द्वेष का व्यवहार नहीं किया। अकादमी अध्यक्ष

डॉ. हरिमोहन धवन ने प्रतिपादि किया कि ‘‘कबीर धार्मिक रूढ़ियों, सामाजिक विषमताओं, कट्टरताओं और संकुचित विचारों का विरोध किया । उनका विद्रोही स्वर उनकी रचनाओं में उभरा और वे धार्मिक-सामाजिक जागरण के अग्रणी विचारक प्रवक्ता बने । धर्म निरपेक्षता, सामाजिक बराबरी, सामाजिक एकता की बात जो कबीर कह गए वह आज भी प्रासंगिक है ।

(3) महात्मा गांधी जयंती: विचार गोष्ठी का आयोजन

2 अक्टूबर, 2016 को गांधी जयंती के अवसर पर डॉ. शैलेन्द्र पाराशर अध्यक्ष- डॉ.अम्बेडकर पीठ, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन ने कहाकि महात्मा गांधी और भारत रत्न डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर दोनों ही महापुरूष भारतीय दलित आंदोलन के ऐ महत्वपूर्ण स्तम्भ रहे है जो यदि अपनी भूमिका से अदृश्य होते तो दलित और शोषित वर्ग की स्थिति कितनी भयावह होती, इसकी परिकल्पना सहज ही हम कर सकते हैं । हमारे लिये इन महापुरूषों का योगदान आखिरी आदमी के उत्थान हेतु न सिर्फ पथ प्रदर्शन करता रहेगा, अपितु सदैव ही हमें अपने संकल्प के लिये प्रेरित भी करेगा ।

(4) संत बालीनाथ जयंती: विचार गोष्ठी का आयोजन

अकादमी के तत्वावधान में 31 दिसम्बर, 2016 को संत शिरोमणी महर्षि बालीनाथ जयंती प्रसंग पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में मुख्यअतिथि के रूप बोलते हुवे डॉ.एच.एम. बरूआ, पूर्व आचार्य-समाजशास्त्र, शासकीय कन्या उच्चत्तर महाविद्यालय, उज्जैन ने कहाकि संत बालीनाथ जी जहाँ कही भी जाते थे वे वहाँ सदगुण तथा सदाचार के नियमों का उपदेश करते थे। वह कहते थे कि सद्गुण विहीन व्यक्ति किसी काम का नहीं है यदि प्रयत्न किया जावे तो प्रत्येक व्यक्ति श्रेष्ठ हो सकता है ।किन्तु सद्गुण सम्पन्न होकर श्रेष्ठ व्यक्ति बनने के लिये ज्ञान का होना परमावश्यक है।वह कहते थे कि एक ही पुण्य है और वह है ज्ञान।

(5)  राष्ट्रीय संगोष्ठी कार्यक्रम का आयोजन

मध्यप्रदेश दलित साहित्य अकादमी द्वारा भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद्, नईदिल्ली के वित्तीय सहयोग से द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन उज्जैन में दिनांक 19-20 जून, 2016 को सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। संगोष्ठी का मुख्य विषय था – भारतीय स्थापत्य कला और शिल्पकार-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य Indian Architecture and Artisan : Historical Perspectives. संगोष्ठी में देश-प्रदेश से पधारे विद्वानों, शोधार्थियों एवं  प्रतिभागियों द्वारा विषयान्तर्गत अपने 36 शोध आलेख एवं सारगर्भित विचार प्रस्तुत किये गये। शुभारम्भ एवं समापन सत्रों के अतिरिक्त दो विचार सत्रों में संगोष्ठी सम्पन्न हुई।

संगोष्ठी का उद्घाटन उज्जैन नगर पालिक निगम, उज्जैन की महापौर- श्रीमती मीना जोनवाल द्वारा किया गया। उद्घाटन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप बोलते हुवे श्री प्रतीक सोलनवलकर, संयुक्त आयुक्त, उज्जैन सम्भाग, उज्जैन ने कहा कि कलाकार की उत्तमता का परिचय उसकी कृति है, उसकी सत्ता, महानता कृति में अन्र्तभूत है, लेकिन निर्माणकर्ताओं का कहीं-कहीं सिर्फ नाम ही ज्ञात है, उनकी जीवनी नहीं। भारतीय चिन्तक-मनीषियों द्वारा शिल्पकला का अध्ययन तो किया गया, परन्तु शिल्पकार वर्ग इससे अछूते ही रहे। शिल्पकारों ने समाज को जितना कुछ दिया, उतना ही समाज ने उसकी उपेक्षा की जबकि वैदिक काल में शिल्पियों का गौरवशाली इतिहास रहा है ।

शुभारम्भ सत्र की अध्यक्षता करते हुवे डा.मनोहरसिंह राणावत-निदेशक, श्री नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ (म.प्र.)  ने की। उन्होंने कहाकि सामान्यतः विभिन्न कलाऐं जो मुख्यतः हस्त रूपांकित होती है, हस्तशिल्प कहलाती है अर्थात एक वस्तु को अनेक स्वरूप में रूपायित करना ही शिल्प है । इसका निर्माण अथवा रूपान्तरण करने वाला व्यक्ति को शिल्पकार कहा जाता है । प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों में कला और शिल्प को एक ही विधा के अन्तर्गत माना गया है लेकिन वैदिक साहित्य में उनकी पृथक-पृथक उक्ती भी मिलती है । देवताओं के प्रधान शिल्पी विश्वकर्मा को शिल्पवतानवद और कलाविदामवर – दोनों ही कहा गया है । वैदिक काल में शिल्पियों के एक विशिष्ट वर्ग का उल्लेख है । ऋग्वेद की एक ऋचा में लगभग एक शिल्पी परिवारों के निवास की चर्चा मिलती है । संगोष्ठी विषयका प्रवर्तन डा.रामकुमार अहिरवार विभागाध्यक्ष- प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व अध्ययनशाला, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन ने करते हुऐ भारतीय समाज के इतिहास का सूक्ष्म एवं विषद अवलोकन से स्पष्ट होता है कि शिल्पियों का प्रारम्भिक इतिहास सैन्धव सभ्यता से दिखाई देता है, लेकिन इनकी श्रेणियों का उद्भव एवं विकास वैदिक काल से दिखाई देता है । वैदिक साहित्य में कर्मार (लौहार), तक्षण (बढ़ई), हिरण्यकार, रथकार आदि के उल्लेख मिलते है। बौद्ध युग के शूद्रों में शिल्पी निम्न था जिनके पेशे आनुवांशिक हो गये थे । उस युग में ऐसी शिल्प प्रधान अनेक जातियाँ बन गई थी और विभिन्न व्यवसायों के आधार पर वर्ग के वर्ग बन गये थे ।

स्वागत भाषण देते हुए अकादमी अध्यक्ष डॉ. हरिमोहन धवन ने अकादमी की गतिविधियों पर संक्षिप्त प्रकाश डालते हुवे कहा कि बदलते सामाजिक संदर्भो में भारत में स्थापत्य कला और शिल्पकार की स्थिति का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन किये जाने की आज महती आवश्यकता है एवं संगोष्ठी विषयक आयोजन के महत्व पर प्रकाश डाला, प्रारम्भ में अतिथियों ने दीप-प्रज्जवलन् किया तथा बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के चित्र पर पुष्पांजली अर्पित कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। तत्पश्चात् अकादमी अध्यक्ष डॉ. हरिमोहन धवन, उपाध्यक्ष, श्री सी. एस. बंजारी, सचिव श्री पी. सी. बैरवा, कोषाध्यक्ष डॉ. जी.एस. धवन, सदस्य डॉ.एच.एम. बरूआ, डॉ. रमेशचन्द्र चांगेसिया ने आगंतुक अतिथियों का पुष्पमालाओं से स्वागत किया।  डाला । कार्यक्रम का संचालन अकादमी सचिव श्री पी.सी. बैरवा ने किया तथा आभार अकादमी कोषाध्यक्ष डॉ.जी. एस. धवन ने माना ।

प्रथम विचार सत्र की अध्यक्षता करते हुवे  डॉ. (श्रीमती) प्रभा श्रीनिवासुलू  इतिहाविद् एवं पूर्व प्राचार्य, शासकीय माधव महाविद्यालय, उज्जैन ने कहाकि शिल्प का प्रादुर्भाव आदिम काल में हो गया था । आदिम अवस्था में मनुष्य ने जब पत्थर के औजारों की आवश्यकता महसूस की तब उसने सर्वप्रथम बलुआ पत्थरों को तराशकर उपयोगजन्य औजार बनाना शुरू किया और यहीं से शिल्प की शुरूआत हुई । शिल्प के विकास क्रम में धातु शिल्प, मिट्टी शिल्प आते हैं जिसमें बर्तन आदि का निर्माण हुआ ।

विचार सत्र में सह-अध्यक्ष के रूप में बोलते हुवे प्रोफेसर (श्रीमती) कमलेश शर्मा  विभागाध्यक्ष- इतिहास विभाग, वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा (राजस्थान.) ने बताया कि प्राचीनकाल से ही मनुष्य ने अपने वातावरण व परिस्थिति के अनुसार अपने आपको संबद्ध किया है । श्रेणीयाँ उसकी पारस्परिक सहयोग, विश्वास, कर्तव्य, सुरक्षा आदि प्रवृत्तियों की घोतक है । व्यवसायियों और शिल्पकारों ने अपने व्यवसाय व शिल्प का उचित ढंग से विकास करने के लिए व उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए अपने-अपने संगठनों का निर्माण किया । ये ही संगठन श्रेणिया कहलाए । श्रेणियाँ अपने योद्धा भी रखती थी धन भी उधार देती थी व बैंको की भाँति कार्य करती थी । अपने सदस्यों के हितों की सुरक्षा के साथ-साथ देश के व्यापार और उद्योगों की उन्नति में उनकी सक्रिय भूमिका रही है ।

व्दितीय विचार सत्र की अध्यक्षता करते हुवे डॉ. जे.सी. उपाध्याय पूर्व आचार्य-इन्दौर ने अपने उद्बोधन में कहाकि मानव का कल्पनाशील मस्तिष्क अत्यन्त निर्द्धन्द होकर विचरित करता है तो कला की नाना विधाओं का जन्म होता है जो सार्वदेशिक होती है । वह काल के बन्धन में नहीं बंधती वरन् कालजयी होती है और कलाकार मन में सुक्ष्म अनुभूति को कला में स्वरूप प्रदान करता है । मनुष्य की कला का यह निर्सन प्रान्तो, पहाड़ों की तलहटी व नदी के किनारें, शान्त वातावरण में प्रसूत होती है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें भारत की विभिन्न स्थापत्य कला में दिखाई देता है। द्वितीय विचार सत्र में सहअध्यक्ष के रूप में बोलते हुवे डॉ. एस.एल. वरे प्राचार्य-शासकीय के.पी. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, देवास ने अपने उद्बोधन में कहाकि जिस प्रकार रीतिकाल में मुगलकालीन स्थापत्य कला अपने शिल्प के कारण विश्व में प्रसिद्ध है इसी प्रकार सम्राट अशोक की स्थापत्य कला के लिए संसार के इतिहास में विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यों अशोक पूर्व भी वैशाली के लिच्छवी, अल्लकाप के बुल्ला और मगध सम्राट अजात शत्रु के काल में स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने मिलते हैं जिसकी चर्चा दीघ निकाय, अट्टकथा आदि में मिलती हैं मगर अशोक के समय में जिस स्थापत्य कला का निर्माण किया गया । उसमें तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक और नैतिक तथ्यों के भी दर्शन होते हैं । इस दृष्टि से अन्य कालों की स्थापत्यकला की तुलना में अशोक कालीन स्थापत्य कला का अपना विशेष महत्व है।

संगोष्ठी समापन सत्र की मुख्यअतिथि श्रीमती मीना जोनवाल, महापौर-उज्जैन नगर पालिक निगम, उज्जैन ने कहाकि आज यंत्र संचलित भौतिकतावादी युग में शिल्पकला का हृास दिखाई दे रहा है । भारत के प्रत्येक नागरिक का कत्र्तव्य है कि देश के वंशानुगत शिल्पों को बढ़ावा देवें ताकि उन निर्धन परिवारों की रोजी-रोटी का सहारा बन सके । नहीं तो पाश्चात्य जगत के चकाचैंध यंत्रांे से होने वाला उत्पादन भारत के शिल्पकारों की दशा को और दयनीय बना देगा

समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुवे अकादमी के अध्यक्ष डॉ..हरिमोहन धवन ने कहाकि प्राचीन अथवा मध्यकाल में स्थापत्य कला और शिल्पकारों की पूछ-परक तो होती रही किन्तु आधुनिक काल में औद्योगिक क्रांति और समाज की संकुचित धारणा से शिल्पकला और शिल्पकारों का पतन हो चुका है । वर्तमान में शिल्पी जातियों को शासकीय संरक्षण की आवश्यकता है उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति  सुधारने की आवश्यकता है। कार्यक्रम का संचालन अकादमी सचिव श्री पी.सी. बैरवा ने किया।

(6)  राष्ट्रीय संगोष्ठी कार्यक्रम का आयोजन

मध्यप्रदश दलित साहित्य अकादमी द्वारा भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद्, नईदिल्ली के सहयोग से द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन उज्जैन में दिनांक 26-27 मार्च, 2017 को सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। संगोष्ठी में देष-प्रदेष से पधारे विद्वानों, शोधार्थियों एवं प्रतिभागियों ने विषयान्तर्गत अपने शोध आलेख एवं सारगर्भित विचार प्रस्तुत किये। शुभारम्भ एवं समापन सत्रों के अतिरिक्त दो विचार सत्रों में संगोष्ठी सम्पन्न हुई । संगोष्ठी का मुख्य विषय था : आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी का भारतीय समाज और संस्कृति पर प्रभाव-उभरती चुनौतियाँ तथा समाधान’’ (Impact of  Modern Information Technology on Indian Society and Culture : Emerging Challenges  &  Remedial Measures) संगोष्ठी शुभारम्भ सत्र मुख्य अतिथि के रूप बोलते हुवे  उज्जैन नगर पालिक निगम, उज्जैन की महापौर श्रीमती मीना विजय जौनवाल ने कहा कि आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी विशय पर संगोष्ठी का आयोजन अत्यन्त उपयोगी है, क्योंकि ऐसे आयोजन समाज को समय के अनुरूप जागरूक करते हैं। समारोह की अध्यक्षता करते हुवे न्याय आन्दोलन एवं राष्ट्रीय दलित मानव अधिकार आयोग, नईदिल्ली की प्रदेश संयोजक डॉ. रमा पांचाल ने कहाकि सूचना प्रौद्योगिकी के साथ मानवता के मूल्यों का हास हुआ है, महिलाओं का नुकसान हुआ है, ईन्सानियत खत्म हो गई है । जिस देष में षिक्षा नहीं, साक्षरता नहीं वहां इसका दुरूपयोग हो रहा है । केवल षिक्षित और पढ़े-लिखें लोगों को फायदा हुआ है। अपर-सुपर लोगों को लाभ मिला है। सूचना प्रौद्यागिकी का उपयोग मानवीय विकास के लिये होना चाहिए ।

विषेष अतिथि डॉ. अरूण कुमार, प्रभारी प्राचार्य-षासकीय विजयराघवगढ महाविद्यालय, कटनी ने व्यक्त करते हुवे कहाकि सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से भारतीय समाज में क्रांति को अनुभव किया जा सकता है । चाहें चिकित्सा का क्षेत्र हो या समाज का अन्य क्षेत्र जनता को घर बैठें जानकारियाँ मिल रही है। मीडिया के कारण स्टींग आपरेषन हुवे हैं, हितग्राहियों को योजनाओं की सूचनाऐं प्राप्त हो रही है, नौकरशाही में पारदर्शिता आई है, लोगों को रोजगार मिला है, बैंकों एवं रेलवे में काम के प्रति जागरूकता का भाव हमें दिखाई दे रहा है । यह सब सूचना प्रौद्योगिकी के लाभ है जिनके कारण भारतीय समाज की तकदीर और तस्वीर बदली है ।     यह चिंता का विषय है कि इसके विपरीत समाज में विषमता भी बढ़ी है लेकिन समाज को विकसित करने में सूचना प्रौद्योगिकी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।

संगोष्ठी का विषय प्रवर्तन करते हुवे आचार्य एवं साहित्यकार डॉ. अरूण वर्मा ने कहा कि संसार में जितनी भी क्रांतियों के दौर रहे हैं उनमें संचार क्रांति सबसे महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है । महाषक्तियों ने इसकी शुरूआत जासूसी के लिये की थी । वर्तमान समय में सूचना के साथ सायबर माफिया का बोल-बाला भी दिखाई दे रहा है । ज्ञान की स्वतंत्रता और स्वतंत्रता का ज्ञान भी सूचना क्रांति में चिंता का विषय बन गया है । समाचार पत्रों से नई संचार व्यवस्था में सम्पादक गायब से हो गये हैं प्रबंधन ही मुख्य बन गये हैं । अब समाचार हमारी संवेदना को जागृत नहीं कर पाते हैं । सांस्कृतिक विरासत और मूल्यों के इस देष में संचार क्रांति से हिंदी को भी बहुत नुकसान हुआ है । बहुरंगीय इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व वाले इस भारत के आदर्ष को बचाने की आवष्यकता है।

प्रारम्भ में अतिथियों ने दीप-प्रज्जवलन् किया तथा बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी  के चित्र पर पुष्पांजली अर्पित कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। तत्पश्चात् अकादमी अध्यक्ष डॉ. हरिमोहन धवन, सचिव श्री पी. सी. बैरवा, कोषाध्यक्ष डॉ.जी.एस. धवन, सदस्य डॉ.एच.एम. बरूआ, डॉ. आर.के. अहिरवार, ने आगंतुक अतिथियों का पुष्पमालाओं से स्वागत

किया। स्वागत भाषण देते हुए अकादमी अध्यक्ष डॉ. हरिमोहन धवन ने अकादमी की गतिविधियों पर संक्षिप्त में प्रकाश डाला और संगोष्ठी विषय पर बोतले हुए कहा कि आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी विष्व की समाज व्यवस्थाओं के साथ ही भारतीय समाज को भी प्रभावित कर रही है । सामाजिक व्यवस्था पर इसका नकारात्मक एवं सकारात्मक प्रभाव पड़ना स्वभाविक है। नई तकनीक हमेषा अनेक तरह की संभावनाऐं लेकर आती है। इन नवींन आयामों के साथ चिन्तन मनन और नवाचार की आवष्यकता प्रतीत हो रही है । इसी परिप्रेक्ष्य में मध्यप्रदेष दलित साहित्य अकादमी ने इस दो दिवसीस राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया है ।

प्रथम विचार सत्र की अध्यक्षता डॉ. अम्बेडकर पीठ, विक्रम विष्वविद्यालय, उज्जैन के अध्यक्ष डॉ.शैलेन्द्र पाराषर एवं सह-अध्यक्षता विक्रम विष्वविद्यालय के पूर्व आचार्य डॉ. राजेन्द्र छजलानी एवं अष्वनी कुमार, षोध सहायक- भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नईदिल्ली ने की और सत्र का  संचालन संगोष्ठी संयोजक डॉ. पी.सी. करोडे द्वारा किया गया । द्वितीय विचार सत्र की अध्यक्षता डॉ.आर. सी. सिसौदिया  पूर्व सम्भागीय रोजगार अधिकारी, उज्जैन एवं सह अध्यक्षता डॉ. आर. के. अहिरवार, अध्यक्ष-प्रा.भा.इ.सं. एवं पुरातत्व अध्ययनषाला, वि.वि. उज्जैन द्वारा की गई ।

संगोष्ठी समापन सत्र  समापन समारोह में मुख्यअतिथि के रूप में उद्योगपति डॉ. राजेन्द्र जैन ने कहा कि जनसंचार सांस्कृतिक गतिविधियों को गतिषील बनाने में तथा सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन लाने में प्राचीन समय से क्रियाषील रहा है । आज जनंसचार के साधन जैसे-जैसे विकसित होते जा रहे हैं वैसे-वैसे समाज एवं संस्कृति में बदलाव आ रहा है। विगत दो दशकों में सूचना प्रौद्योगिकी में हुए विकास के कारण संचार के गतिषील और प्रभावषाली साधनों का विकास हुआ हैं।गरीबी उन्मूलन में विकास संचार की भूमिका, सामाजिक सहभागिता,पारदर्षिता और उत्तरदायी षासन व्यवस्था, विकेन्द्रीकृत प्रषासन, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए नवींन सूचना तंत्र और प्रौद्योगिकी के प्रयोग पर गंभीरता से विचार-विमर्ष आज समय की प्रमुख मांग बनता जा रहा है ।

समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुवे विक्रम विष्वविद्यालय, उज्जैन के पूर्व आचार्य डॉ.एस.एन.गुप्ता ने कहाकि स्वतंत्रता के बाद देष में साक्षरता और शिक्षा कार्यक्रमों की श्रृंखला में संचार प्रौद्योगिकी की भूमिका को शिक्षाविद, राजनेता, नीति निर्धारक, समाज-सुधारक और वैज्ञानिक सभी रेखांकित कर रहे हैं। यद्यपि यह अभी अपर्याप्त है और इसके अच्छे परिणामों की दरकार है । परम्परागत सांस्कृतिक मूल्यों और मान्यताओं में बदलाव परिलक्षित हो रहा है। क्या गाॅंव, क्या षहर सभी स्थानों पर डिजिटल विभाजन, राष्ट्रीय दूरसंचार नीति, ई-गवर्नेंस, फ्रेण्डस काउन्टर, उपग्रह संचार, काल सेन्टर, आउटसोर्स व्यवसाय, सूचना प्रौद्योगिकी आधारित उद्योग निरन्तर आकार और विस्तार ले रहे हैं। राष्ट्रीय संगोष्ठी के विभिन्न सत्रो में कुल 42 षोध आलेखों का वाचन/प्रस्तुतिकरण किया गया।


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